धानुक एक विर कोम है

धानुक जाती प्राचिन काल मे एक वीर कोम थी, जिसका कार्य सेना में धनुष बाण चलाना अपनी अजीविका चलाना था। इसे जाति विशेष से संबोधित नहीं किया जाता था, बल्कि एक समूह विशेष को जिसे धानुक आदि नाम से सम्बोधित किया जाता था।
धानुक जाति का उल्लेख कई जगह किया गया है। जैसे महाकवि मलिक मोहम्मद जायसी ने अपनी पुस्तक पद्मावत में निम्न प्रकार उल्लेख किया है-
गढ़ तस सवा जो चहिमा सोई,
बरसि बीस लाहि खाग न होई
बाके चाहि बाके सुठि कीन्हा,
ओ सब कोट चित्र की लिन्हा
खंड खंड चौखंडी सवारी,
धरी विरन्या गौलक की नारी
ढाबही ढाब लीन्ते गट बांटी,
बीच न रहा जो संचारे चाटी
बैठे धानुक के कंगुरा कंगुरा,
पहुमनि न अटा अंगरूध अंगरा।
आ बाधे गढ़ि गढ़ि मतवारे,
काटे छाती हाति जिन घोर
बिच-बिच बिजस बने चहुँकारी,
बाजे तबला ढोल और भेरी
महाकवि का कथन है कि किले के प्रत्येक कंगूरे पर वीर धनुर्धर बैठे हैं और किले की रक्षा का भार उन्हीं पर है। उनके बाणों की जब वर्षा होती है तो हाथी भी गिर जाते हैं।

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